कान्ताकटाक्षविशिखा न खनन्ति यस्य चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुतापः ॥ कर्षन्ति भुरिविषयाश्च न लोभपाशै- र्लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः ॥
कान्ताकटाक्षशर हे रुतती न ज्याला हिमी न कोपज हुताशनही जयाला ॥ ज्याच्या मनी न जडती विषयादि पाश तो धीर जिंकिल जगत्रय सावकाश ॥