को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः ॥ मृदङ्गो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम् ॥
मुखीं पिण्डदानें जगीं जीवला जो न तो आर्जवीं तै न कां जीव लाजो ॥ बहू काय सांगो मृदङ्गास लेपा मुखीं तो कसें गोड आलाप घे पां ॥